उज्जैन केवल एक शहर नहीं, यह एक सभ्यता है, जिसकी धड़कनें क्षिप्रा के जल के साथ बहती रही हैं। पर आज वही पवित्र क्षिप्रा कराह रही है। घाटों पर मरी हुई मछलियों की दुर्गंध, जल में ऑक्सीजन की कमी और मृतप्राय प्रवाह—ये केवल संकेत नहीं, चेतावनी हैं।
वह नदी जो कभी आस्था और आचरण का प्रतीक थी, आज मानवजनित प्रदूषण की मार से बदहाल है। सवाल यह है कि दोष किसका है? सरकार का? समाज का? या हम सबका?
“गोमुख” से गूंजती खामोशी
क्षिप्रा का मूल स्रोत—गोमुख—चोक हो चुका है। वर्षों से कोई प्रवाह नहीं। हमने उसकी सांसें बंद कर दीं, और फिर उसकी कृत्रिम जीवन-रेखा के नाम पर नर्मदा से जल खींचने को ही समाधान मान लिया। पर क्या ये स्थायी उपाय है?
यदि वाकई हम क्षिप्रा को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो गोमुख को खोलना और साथ ही 2-3 वैकल्पिक जलस्रोत तैयार करना सबसे पहला कदम होना चाहिए। सरकार के पास हॉरिजॉन्टल ड्रिलिंग मशीनें हैं, तकनीक है, पर क्या इच्छाशक्ति है?
गंभीर डैम का दूसरा चरण—समाधान की कुंजी
उज्जैन की पेयजल समस्या और क्षिप्रा का सूखता कलेजा—दोनों का समाधान एक ही रास्ते पर है: गंभीर डैम का दूसरा चरण। यदि इस योजना को 2027 तक युद्धस्तर पर पूर्ण कर लिया जाए, तो न केवल क्षिप्रा में स्थायी प्रवाह सुनिश्चित होगा, बल्कि उज्जैन आगामी 200 वर्षों तक पेयजल संकट से मुक्त हो सकता है।
यह कोई दावा नहीं, तर्क और तथ्यों पर आधारित आग्रह है। घाटों पर छोटे-छोटे टैंकर लगाकर समस्या की लीपा-पोती नहीं हो सकती। यह समय है बड़ी सोच, बड़े निर्णय और बड़ी कार्रवाई का।
नदी को नहीं, सोच को बदलिए
अक्सर कहा जाता है, “नदियों को बचाइए”। पर असल में हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हर धार्मिक आयोजन के बाद नदी में फेंकी जाने वाली सामग्री, नालों से बहता गंदा पानी, घाटों की उपेक्षा और वृक्षविहीन वातावरण—यह सब क्षिप्रा की आत्मा पर चोट है।
क्या हमने कभी सोचा कि घाटों पर हरियाली क्यों नहीं है? क्यों नहीं हर घाट के पास वृक्षारोपण अनिवार्य किया गया? क्यों नहीं हम नागरिक, जो खुद को भक्त कहते हैं, वही सबसे पहले प्रदूषण फैलाते हैं?
अब समय है नागरिक संकल्प का
सरकारी समितियों के भरोसे क्षिप्रा नहीं बचेगी। हमें जन नागरिक समिति बनानी होगी, जो निगरानी करे, सुझाव दे, योजनाओं पर नजर रखे और हर स्तर पर जवाबदेही तय करे। यह समिति त्रिस्तरीय हो—राज्य, संभाग और स्थानीय स्तर पर—ताकि कोई कोना अंधेरे में न रह जाए।
अंत में एक स्पष्ट बात
क्षिप्रा की रक्षा केवल सरकार की नहीं, हर उज्जैनवासी की जिम्मेदारी है। हम जितनी जल्दी यह स्वीकार करेंगे, उतनी जल्दी समाधान की दिशा में कदम बढ़ा सकेंगे।
यदि आज नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ियां न केवल क्षिप्रा को, बल्कि हमारी संवेदनहीनता को कोसेंगी।
तो आइए, संकल्प लें—
“क्षिप्रा को गंदगी की डबरी नहीं, पुनः पवित्र जीवनधारा बनाएंगे।
गंभीर डैम का दूसरा चरण 2027 तक पूरा कराएंगे।
और हर नागरिक अपनी भूमिका निभाएगा।