प्रेस स्वतंत्रता दिवस: जब मिशनरी पत्रकारिता पर मंडराने लगे संकट के बादल

हर वर्ष 3 मई को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस न केवल पत्रकारिता की आत्मा को सलाम करने का दिन है, बल्कि मीडिया की मौजूदा दशा और दिशा पर चिंतन का अवसर भी देता है। अब से कुछ वर्ष पहले तक यह पर्व भारत में सीमित दायरे में मनाया जाता था, लेकिन वर्तमान में इसकी व्यापकता बढ़ी है। संगोष्ठियों और विमर्श के मंच पर पत्रकारिता की साख, संकट और समाधान पर गंभीर चर्चा हो रही है — जो समय की मांग भी है।

आज का दिन समर्पित है उन समाज सैनिकों को, जो सत्य की मशाल जलाए हुए हैं। लेकिन विडंबना यह है कि ठीक उसी समय, पत्रकारिता खुद संकट से जूझ रही है। जब समाज, प्रकृति और मानव जीवन ही संकट में हो, तो पत्रकारिता जैसे स्तंभ से अपेक्षा बढ़ जाती है कि वह दिशा दिखाए, चेताए और चेतना जगाए।

राष्ट्रकवि दिनकर और पंडित नेहरू का एक ऐतिहासिक प्रसंग इस भाव को साकार करता है, जब दिनकर ने थके हुए नेहरू का हाथ थामकर कहा था — “जब-जब नेतृत्व लड़खड़ाएगा, साहित्य उसका हाथ थामेगा।” यही भूमिका आज पत्रकारिता को भी निभानी है।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सूर्यकांत का यह कथन कि “मैं दिल से पत्रकार हूं” — यह साबित करता है कि पत्रकारिता एक भावना है, एक जिम्मेदारी है, न कि केवल पेशा। लेकिन दुख की बात है कि आज प्रिंट मीडिया, विशेषकर कॉरपोरेट मालिकों के नियंत्रण में आकर, मिशन से भटकता जा रहा है। सत्य बोलना और सत्ता से सवाल पूछना जैसे अपराध बन गए हैं।

आज पत्रकार बनने के लिए चार करोड़ रुपये का विज्ञापन पैकेज चाहिए — यह व्यवस्था की गिरावट का सबसे कटु उदाहरण है। संपादकीय स्वतंत्रता अब पैसों की मोहताज बन चुकी है। ‘हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे कुछ अखबार ही हैं जिन्होंने अब भी अपनी आत्मा को नहीं बेचा है।

रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर (RNI) जैसे सरकारी संस्थान भी पत्रकारों के लिए बाधा बनते जा रहे हैं। नियमों की आड़ में पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला हो रहा है। ऑनलाइन पोर्टलों की मान्यता के नाम पर धन उगाही और भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हैं।

मध्य प्रदेश के सीहोर जिले का उदाहरण बताता है कि कैसे रेत माफिया, पुलिस, प्रशासन और कुछ पत्रकारों की मिलीभगत से नर्मदा का सीना छलनी किया जा रहा है। पत्रकारिता जो जनपक्ष की आवाज बननी थी, वह अब सत्ता के तलवे चाटने में व्यस्त हो चुकी है।

ई-मीडिया की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। संवाद की जगह सनसनी है। जनहित की जगह टीआरपी की भूख है। नागिन डांस और फालतू बहसों को जगह मिलती है, लेकिन समाज के मुद्दों पर मौन छाया रहता है।

फिर भी उम्मीद बची है। जब तक 147 करोड़ जनता में सच को पहचानने की समझ है, तब तक मिशनरी पत्रकारिता जीवित रहेगी। सरकारों को भी चाहिए कि वे मीडिया को नियंत्रित नहीं, बल्कि सशक्त करें — ताकि वो सत्ता की गोद में न बैठकर, जनमत की चेतना बन सके।

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