मकर संक्रांति का क्या अर्थ है ( मकर संक्रांति का महत्त्व

भारतीय संस्कृति, प्रकृति और जीवन मूल्यों के साथ बहुत ही सघनता से जुड़ी हुई है और मकर सक्रांति इसका एक अद्भुत उदाहरण है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायण हो जाते हैं। इस दिन से प्रकृति वसंत की ओर बढ़ती है। उत्तरायण में मृत्‍यु हुए व्यक्ति की अपेक्षा दक्षिणायन में मृत्‍यु हुए व्‍यक्‍ति की दक्षिण (यम) लोक में जाने की संभावना अधिक होती है । प्रत्येक धार्मिक कार्य के लिए उत्तरायण शुभ माना जाता है इसलिए भीष्म पितामह ने अपने देह त्याग के लिए उत्तरायण को ही चुना था। माना जाता है कि इस दिन सूर्य भगवान अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं। इसी दिन भागीरथ जी के प्रयास से माँ गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था।

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 इसलिये गंगा सागर मेले का आयोजन भी किया जाता है।  शास्त्रों में सूर्य के उत्तरायण को देवताओं के दिन के रूप में जाना जाता है जो एक सकारात्मक रूप है, जिस कारण इस दिन पर व्रत किया जाता है और मंदिरों में पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन नदियों में स्नान, पूजा, दान का भी महत्व है अलग-अलग स्थानों पर इसे अलग-अलग नामों और तरीकों से जाना और मनाया जाता है जैसे दक्षिण भारत में पोंगल, उत्तर भारत में लोहड़ी इत्यादि । इसे उत्तरायण, माघी, खिचड़ी नामों से भी जाना जाता है। इसे किसी भी नाम से जानें पर मर्म तो इतना ही है कि परस्पर मेलजोल बढे और सत्वगुण बढे । 

उत्तरायण का महत्‍व भगवान् श्रीकृष्‍ण ने भगवद़्‍गीता में बताते हुए कहा हैं कि  

अग्‍निर्ज्‍योतिरहः शुक्‍लः षण्‍मासा उत्तरायणम् ।

तत्र प्रयाता गच्‍छन्‍ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ – भगवद़्‍गीता (अध्‍याय 8, श्‍लोक 24)

इस श्‍लोक में बताया है कि, उत्तरायण के 6 महीने के शुभ काल में जब सूर्यदेव उत्तरायण होते हैं और पृथ्‍वी प्रकाशमय रहती हैं, प्रकाश में शरीर का त्‍याग करने से जन्‍म-मरण से मुक्‍ति मिलती है और फिर उस मानव का पुनर्जन्‍म नहीं होता । (अर्थात् उसके लिए अच्‍छे कर्मोंद्वारा कर्मफल से मुक्‍त होना भी आवश्‍यक होता है।)

पर्वकाल में दान का महत्व : 

मकर सक्रांति को दान देने का अत्यधिक महत्व है l इस दिन दाल, चावल, तिल, वस्त्र आदि का दान दिया जाता है। मकर संक्रांति से रथसप्तमीतक का काल पर्वकाल होता है । इस पर्वकाल में किया गया दान एवं पुण्यकर्म विशेष फलप्रद होता है ।

तिल गुड़ का महत्व :

 तिल में सत्त्वतरंगें ग्रहण और प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए तिलगुड का सेवन करने से अंतःशुद्धि होती है और साधना अच्छी होने हेतु सहायक होते हैं । तिलगुड के दानों में घर्षण होने से सात्त्विकता का आदान-प्रदान होता है । ‘श्राद्ध में तिल का उपयोग करने से असुर इत्यादि श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते ।’ सर्दी के दिनों में आने वाली मकर संक्रांति पर तिल खाना लाभप्रद होता है । ‘इस दिन तिल का तेल एवं उबटन शरीर पर लगाना, तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल पीना, तिल होम करना, तिल दान करना, इन छहों पद्धतियों से तिल का उपयोग करने वालों के सर्व पाप नष्ट होते हैं ।’ 

तीर्थस्नान का महत्व : 

मकर संक्रांतिपर सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पुण्यकाल रहता है । इस काल में तीर्थस्नान का विशेष महत्त्व हैं । गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों के किनारे स्थित क्षेत्र में स्नान करने वाले को महापुण्य का लाभ मिलता है ।’ 

दान योग्य वस्तुएं 

   इस त्योहार पर किया गया दान एवं पुण्य कर्म विशेष फलप्रद होता है। नये बर्तन, वस्त्र, अन्न, तिल गुड, गाय, घोडा, स्वर्ण अथवा भूमि का अपनी इच्छानुसार दान करना चाहिए। सुहागिनें श्रृंगार का दान करती हैं। आजकल, साबुन, प्लास्टिक की वस्तुएं जैसी अधार्मिक सामग्री का दान किया जाता है । इसकी अपेक्षा अगरबत्ती, चन्दन, धार्मिक ग्रन्थ आदि का दान करना चाहिए । सात्विक वस्तुओं से जीव में ज्ञान शक्ति और भक्ति जागृत होती है। सात्विक वस्तुओं के भेंट करते समय जब भेंट का उद्देश्य शुद्ध होता है और देने वाले के प्रति प्रेम भाव अधिक हो, तब निरपेक्षता आती है ।

                                                                                  निषेध

  संक्रांति के पर्वकाल में दांत मांजना, कठोर बोलना, वृक्ष एवं घास काटना तथा कामविषय सेवन करना, ये कृत्य पूर्णतः वर्जित हैं ।’

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